(श्रमण संस्कृति के उन्नायक, तपस्वी साधक और आध्यात्मिक पथप्रदर्शक)
दिगंबर जैन परंपरा में साधना के शिखर पुरुष, लोकोपकारी महापुरुष, महाकवि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज के प्रथम शिष्य, निर्यापक श्रमण आचार्य श्री 108 समयसागर जी महामुनिराज 44 वर्षों से कठोर तप और साधना के माध्यम से आत्मशुद्धि की राह पर अग्रसर हैं। आपका स्मरण मात्र गौरव की अनुभूति कराता है।
प्रारंभिक जीवन एवं आध्यात्मिक यात्रा
आपका जन्म 27 अक्टूबर 1958 (शरद पूर्णिमा) को कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा ग्राम में हुआ। माता श्रीमती श्रीमंती जी (आचार्यिका समयमति जी) एवं पिता श्री मल्लप्पा जी अष्टगे (मुनि श्री मल्लीसागर जी) ने आपको शांतिनाथ नाम दिया। आपका परिवार संपूर्ण रूप से आध्यात्मिक प्रवृत्ति का रहा, जिसमें माता-पिता मुनि-आर्यिका बने, बहनें बाल ब्रह्मचारिणी बनीं और तीनों बड़े भाई मुनि दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग पर अग्रसर हुए।
आपकी प्रारंभिक शिक्षा मराठी माध्यम से हाई स्कूल तक हुई। जन्म से ही धार्मिक संस्कारों के कारण आपका झुकाव अध्यात्म की ओर था।
ब्रह्मचर्य व्रत और क्षुल्लक दीक्षा
सन् 1975 में राजस्थान के महावीर जी तीर्थक्षेत्र में आचार्य श्री विद्यासागर जी के आत्मिक सम्बोधन से प्रभावित होकर आपने 17 वर्ष की आयु में अपने अग्रज अनंतनाथ जी (वर्तमान निर्यापक मुनि श्री योगसागर जी) के साथ 2 मई 1975 को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया।
आचार्य श्री की पारखी दृष्टि ने आपकी योग्यता को पहचाना और 18 दिसंबर 1975 को सोनागिर जी (म.प्र.) में आपको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की गई। इसी के साथ आपका नाम समयसागर रखा गया।

दीक्षा दिवस और कठोर तप
चैत्र कृष्ण छठ 8 मार्च 1980 को श्री द्रोणगिरि सिद्धक्षेत्र (छतरपुर, म.प्र.) में आपने दिगंबर मुनि दीक्षा ग्रहण कर मोक्षमार्ग की कठिन यात्रा को पूर्ण समर्पण के साथ अपनाया। अपनी तपस्या को उन्नत करते हुए आपने 1982 में आजीवन फलाहार का त्याग कर दिया।
आपकी साधना की गहराई को देखते हुए आचार्य श्री ने आपको जैन आगम ग्रंथों का गहन अध्ययन कराया। आपने 1991 में वृत्तिपरिसंख्यान तप के अंतर्गत आजीवन एक ही गृह से आहार ग्रहण करने का कठिन संकल्प लिया।
आप प्रतिदिन रात्रि मौन साधना, लकड़ी के पाटे पर विश्राम, सूर्यस्नान और वायुस्नान करते हैं। अहिंसा व्रत की रक्षा हेतु प्रत्येक ढाई माह में स्वयं अपने हाथों से केशलोंच करते हुए अब तक 235 से अधिक बार इस कठिन परीक्षा को पार कर चुके हैं।
संघ सेवा एवं समाज उत्थान
आपने 1980 से आचार्य संघ में आगत ब्रह्मचारियों, क्षुल्लकों, ऐलकों और मुनियों को धर्म, दर्शन, आगम और अध्यात्म की शिक्षा प्रदान की। आपकी वाणी सरल, सहज और ओजस्वी है, जिससे श्रोता आत्मिक शांति का अनुभव करते हैं।
आप कन्नड़, मराठी, हिंदी, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के ज्ञाता हैं। आपने अपने गुरु आचार्य श्री विद्यासागर जी के साथ हजारों किलोमीटर की पदयात्रा कर समाज को सात्त्विक और अहिंसक जीवन का संदेश दिया।
निर्यापक श्रमण पद और आचार्य प्रतिष्ठा
29 नवंबर 2018 को पंचकल्याणक महोत्सव, ललितपुर (उ.प्र.) में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने आपको प्रथम निर्यापक श्रमण घोषित किया।
6 अप्रैल 2024 को सिद्धक्षेत्र कुन्दलपुर (दमोह, म.प्र.) में संत समुदाय, मुनि संघ, आर्यिका संघ, ब्रह्मचारी भाई-बहनों और समाज के समक्ष आचार्य पदारोहण समारोह में आपको आचार्य पद प्रदान किया गया।
आपका संदेश
आप युवाओं से कहते हैं—
“जिंदगी बहुत छोटी है, इसे सद्कार्यों से सार्थक बनाओ। आध्यात्मिकता और नैतिकता के मार्ग पर चलकर ही शाश्वत सुख प्राप्त किया जा सकता है।”
आपके जीवन का प्रत्येक क्षण एक तपस्वी के आदर्श को दर्शाता है। श्रमण संस्कृति के ऐसे महानायक आचार्य श्री 108 समयसागर जी महामुनिराज को कोटिशः वंदन।
जय जय आचार्य श्री समयसागर जी महाराज!
