योग का जब भी उल्लेख होता है, तो सामान्यतः लोग उसे केवल शारीरिक अभ्यास, प्राणायाम या ध्यान की प्रक्रिया तक ही सीमित मानते हैं। परंतु श्रीमद्भगवद्गीता में योग का एक व्यापक और गूढ़ अर्थ प्रस्तुत किया गया है। गीता के द्वितीय अध्याय के 48वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
इस श्लोक के माध्यम से भगवान कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हैं और बताते हैं कि “समत्व” ही योग है।
श्लोक का अर्थ और भावार्थ
इस श्लोक में “समत्व” का तात्पर्य है मन की ऐसी स्थिति जिसमें व्यक्ति सुख-दुख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता जैसे सभी द्वंद्वों में समभाव बनाए रखता है। जब कोई मनुष्य बिना किसी आसक्ति के अपने कर्तव्य का पालन करता है, और परिणामों में समभाव रखता है, वही सच्चे अर्थों में योगी कहलाता है।
समत्व: मानसिक संतुलन की अवस्था
समत्व का विचार यह सिखाता है कि जीवन में घटने वाली परिस्थितियाँ चाहे कैसी भी हों, व्यक्ति का मन संतुलित रहना चाहिए। यह संतुलन ही योग है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को मानसिक रूप से सशक्त बनाता है, नकारात्मकता से बचाता है और जीवन में शांति की अनुभूति कराता है।
प्रासंगिकता और आधुनिक जीवन में महत्व
आज के तनावपूर्ण और प्रतिस्पर्धात्मक जीवन में जहाँ व्यक्ति हर पल अपेक्षाओं, असफलताओं और तुलना से घिरा रहता है, वहाँ “समत्व” का सिद्धांत अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। यदि हम प्रत्येक परिस्थिति में समभाव बनाए रखें, तो मानसिक शांति, संतुलन और सकारात्मक दृष्टिकोण को जीवन में आत्मसात कर सकते हैं।
“समत्वं योग उच्यते” केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि योग केवल शरीर की साधना नहीं, वरन् मन का संयम और संतुलन भी है। जब हम अपने कर्मों को बिना आसक्ति और परिणाम की चिंता के करते हैं, और हर स्थिति में समभाव बनाए रखते हैं तभी हम सच्चे अर्थों में योगी कहलाते हैं।
“समत्वं योग उच्यते” का सिद्धांत हमें जीवन की हर परिस्थिति में स्थिरता और संतुलन सिखाता है। यह न केवल गीता का सार है, बल्कि एक उच्च जीवन मूल्य भी है, जिसे अपनाकर हम एक शांत, समरस और संतुलित जीवन की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
आस्था योग पीठ
योग गुरु
रश्मि शुक्ला
मीनाक्षी नगर दुर्ग

Author: Deepak Mittal
