दीपावली त्यौहार का समय शहर- ग्रामीण बना उत्सव का वातारण- जिला कोषालय अधिकारी महेंद्र पाण्डेय ….

Picture of Deepak Mittal

Deepak Mittal

निर्मल अग्रवाल ब्यूरो प्रमुख मुंगेली

मुंगेली -जिला कोषालय अधिकारी महेंद्र पाण्डेय दीपावली पर्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अभी दीपावली त्योहार का समय शहर-ग्रामीण में बहुत ही उत्सव का वातारण का माहौल बना रहता है। वैसे भी हमारा देश- उत्सव धर्मी देश है, हम लोग सभी खुशियों को उत्सव के रूप में मनाते हैं।

छत्तीसगढ का मुख्य धंधा- काश्तकारी होने से कम दिनों में तैयार होने वाले फसल जिसे गांव में हरहुन धान कहते हैं- इस त्योहार के मौसम में पक कर कटाई होने तथा फसल कटने योग्य (बोवाई के आगे-पिछे होने से) हो जाते हैं। किसान अपनी मेहनत का फल देख-देख कर रोमांचित होते रहते हैं।

ठीक इसी समय गांव में ” गौरी- गौरा” पूजन होता है, जिसका एक भाग “सुवा नाच” होता है. ग्रामीण तरूणी विभिन्न परिधान में दोपहर पश्चात प्रत्येक घर के आंगन में जाकर गीत गाते हुए खुशी के साथ ताली बजाते नाचते हैं. एक यही नाच है जो बगैर साज के सिर्फ ताली पर आधारित नाच है. आज विकास के साथ बहुत ही मधुर आवाज और विभिन्न प्रकार के साज के साथ सुवा गीत गाया और नाचा जाता है, तीस पर कैमरामैन की कलाकारी फिल्मांकन में देखते ही बनता है.


सुवा गीत में सुप्रसिद्ध गीत है- “तारी हारी नाना, मोर नाना रे नाना” है. आपको बताते अत्यंत खुशी हो रही है कि इस गीत को “छत्तीसगढ पहली फिल्म ” कहि देबे संदेस ( चूंकि छत्तीसगढी भाषा हिंदी का अपभ्रंश भाषा होने से कतिपय अक्षर का प्रयोग में दूसरे अक्षर का आलंबन लिया जाकर किया जाता है, मसलन “बछवा” को “बसवा” “छाता” को “साता” “पछताना” को “पसताना” आदि अनेको उदाहरण है. इसी करम में “श” शब्द का उपयोग न होने से “श” के स्थान पर भी “स” शब्द का उपयोग होता है) हाॅ तो पहली सिनेमा कहि देबे संदेस में इस “तारी हारी नाना ” सुवा गीत को शामिल किया जाकर बनायी गई, जो वर्ष 1965 में रिलीज हुई।


इस फिल्म का थीम जाति- भेद मिटाने पर आधारित है. तत्समय इस फिल्म पर काफी विवाद हुआ था. विवाद का स्तर बस इतने में समझ लीजिये कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में इस फिल्म को देखी थी।
इस फिल्म में प्रयोगधर्मी एक बानगी यह भी देखने को मिला कि छत्तीसगढ में शास्त्रीय गायन- “तोर पैरी के छम- छम” भी काफी सराहा गया।
एक ददरिया गीत – “होरे-होरे होने हो ओ” को भी स्थान दिया गया.
ग्रामीण संस्कृति को उकेरने वाली गीत ” मोर अंगना के सोन चिरैया- अंगना म तुलसी के बिरवा” भी उस समय काफी सराहा गया। प्रकृति का आलंबन लेकर बनाई गई गीत “झमकत नदिया नरवाल बहिनी लागे” ने भी काफी शोहरत हाॅसिल किया. मजेदार बात यह है कि इस गीत को स्व. मोर.रफी साहब ने अपनी आवाज दी है।


चलिये अब हमारी चर्चा में मोहतरम रफी साहब आ ही गये तो कतिपय बातें इन पर भी कर ली जाय. जनाब मो. रफी सर ने छत्तीसगढी में कई गीतों में अपनी आवाज दिये है. जिनमें से कुछ गाने तो राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त किये. यद्यपि छत्तीसगढी समझने/बोलने वालों के बीच तो सराहनीय रहे ही, मगर जो छत्तीसगढी समझ/ बोल नहीं पाते ऐसे प्रदेशों/क्षेत्रों में रफी साहब की आवाज ने जादू दिखाई. उनके गीतों में जबरदस्त शोहरत हाॅसिल किया-गोंदा फूलगे मोरे राजा, गोंदा फूलगे मोरे रानी, छाती म लगे बान गोंदा फूलगे. ये गाना तो आज भी आवाज की दुनिया के दिवानों के सर चढ़कर बोलती है. यह गीत वर्ष- 1971 में रिलीज छत्तीसगढी सिनेना”घर-द्वार” की है. इसी फिल्म में एक चीर अमर प्रणय गीत- “मैना तहीं मोर मैना- के तोर बीन खाली जिनगी के पिंजरा” आज भी गांव में इस गीत को प्रेमी युगल अपने दिल की बात इजहार करने लिए बड़े ही चाव से गाते व गुनगुनाते हैं.


मरहूम जनाब रफी साहब करोड़ो लोगों की पसंद अपने करिश्माई आवाज के सहारे दिल में राज तो कर ही रहे हैं और अमर हैं- हम छत्तीसगढ़िया उनके एहसानमंद हैं कि उस दौर में जब छत्तीसगढी को गवारों की बोली कहते थे- तब उन्होंने बहुत रूचि लेकर गीत गाए थे. यह भी किंवदंति है कि उन्होंने इन गीतों का पारिश्रमिक नहीं लिये थे.
आलेख का सफर छत्तीसगढी बोली/भाषा से शुरू होकर “सुवा गीत” और फिल्मों की यात्रा करते हुए दिवंगत रफी जी पहुॅच गये.मुझे ऐसा लगता है कि गीतों की श्रृंखला के बगैर आलेख बेरंग प्रतीत होगा. अतः कुछ पल समय निकालकर अवश्य सुनें और आनंद विभोर हो जायें।

Deepak Mittal
Author: Deepak Mittal

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *