देवताओं की अदालत : जहां देवी-देवता भी देते हैं इंसाफ का जवाब….बस्तर का भंगाराम देवी मंदिर- ताराचंद साहू, बालोद

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छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल बस्तर क्षेत्र अक्सर कंगारू अदालतों के कारण सुर्खियों में रहता है, जहां माओवादी खुद ही सजा सुनाते हैं। लेकिन बस्तर में एक ऐसी अद्भुत अदालत भी है जो हर साल मानसून के दौरान भादो यात्रा उत्सव के दौरान खुलती है। यह अदालत, भंगाराम देवी मंदिर में लगती है और यहां देवताओं को भी इंसाफ का सामना करना पड़ता है।बस्तर की धरती पर आदिवासियों की आबादी 70 प्रतिशत है। यहां की जनजातियां – गोंड, मारिया, भतरा, हल्बा और धुरवा – न केवल अपने सांस्कृतिक धरोहर को संजोए हुए हैं, बल्कि ऐसी अनोखी परंपराओं को भी निभाते हैं| आदिकाल से लेकर वर्तमान समय तक, सभ्यता के विकास के विभिन्न स्तरों पर न्याय व्यवस्था, आदिम संस्कृति का एक प्रमुख अंग रही है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर के हरे-भरे जंगलों में केशकाल नगर में प्रतिष्ठित भंगाराम देवी मंदिर स्थित है। यह पवित्र स्थल न केवल एक पूजा स्थल है, बल्कि “देवताओं की परीक्षा” नामक एक मनोरम परंपरा का भी घर है।जो भादो जात्रा उत्सव के दौरान भंगाराम देवी मंदिर में प्रतिवर्ष लगने वाली एक जन अदालत है। यह अदालत देवताओं को उनके कर्मों के लिए उत्तरदायी ठहराती है और दंड देती है स्थानीय मूलनिवासी समुदायों, विशेष रूप से गोंड, मुरिया और हल्बा जनजातियों की रक्षक के रूप में पूजी जाने वाली देवी भंगाराम देवी को समर्पित है देवी लोगों और उनकी ज़मीनों की रक्षा करती हैं, भरपूर फ़सल और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा का आशीर्वाद देती हैं।भंगाराम देवी एक मातृ स्वरूप के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनकी पूजा फल-फूल और कभी-कभी पशु बलि के माध्यम से की जाती है, यह परंपरा जनजातियों की कृषि जीवन शैली से गहराई से जुड़ी हुई है।धार्मिक केंद्र के रूप में, बल्कि एक सामुदायिक सभा स्थल के रूप में भी कार्य करता है, जहाँ प्रकृति, मनुष्यों और देवताओं के बीच सामंजस्य सुनिश्चित करने के लिए अनुष्ठान किए जाते हैं।

यह परंपरा इस विश्वास पर आधारित है कि जंगलों, नदियों और पहाड़ों के देवता, मनुष्यों की तरह, किसी भी समय अलग-अलग स्तर की शक्ति या कृपा प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई देवी या देवता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते चाहे वह सूखे के दौरान बारिश हो, बीमारी से सुरक्षा हो, या अच्छी फसल हो तो ग्रामीण सार्वजनिक रूप से उनके अधिकार को चुनौती देते हैं भंगाराम देवी, उन मुकदमों की देखरेख करती हैं जिनमें देवताओं पर आरोप लगाए जाते हैं और पशु, विशेष रूप से मुर्गियाँ, गवाह के रूप में कार्य करती हैं।240 से अधिक गाँवों के लोग इन मुकदमों को देखने और सामूहिक भोज का आनंद लेने के लिए एकत्रित होते हैं।यह मुक़दमा सिर्फ़ आरोप-प्रत्यारोप और फ़ैसले का मामला नहीं है। यह एक गहन आध्यात्मिक अनुभव है, जहाँ ग्रामीण ईश्वर के साथ अपने रिश्ते में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं भंगाराम देवी मंदिर के पुजारी को अपने वश में कर लेती हैं, जिससे वह दंड देने में सक्षम हो जाती हैं। अपराध के आधार पर दंड अलग-अलग होते हैं, छह महीने के निष्कासन से लेकर मृत्युदंड तक। मृत्युदंड में, मूर्तियों के टुकड़े कर दिए जाते हैं, जबकि निष्कासन में, उन्हें मंदिर से निकालकर एक खुली जेल में रख दिया जाता है।
देवताओं का परीक्षण बस्तर की आदिवासी मान्यताओं के लोकतांत्रिक स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ देवता भी जाँच से परे नहीं हैं।दैवीय और सांसारिक संबंध ग्रामीणों में कठोर धार्मिक व्यवस्थाओं के विपरीत, जहाँ ईश्वर की इच्छा अंतिम और निर्विवाद होती है,बस्तर की जनजातियों के अपने देवी-देवता हैं। स्थानीय लोककथाओं से पता चलता है कि इनमें से कई देवता कभी मानव थे, जिन्हें उनके नेक कार्यों के कारण दैवीय दर्जा प्राप्त हुआ।भंगाराम देवी मंदिर और देवताओं का परीक्षण सिर्फ़ एक परंपरा से कहीं बढ़कर है; यह गोंड लोगों के अपने देवताओं से गहरे जुड़ाव और ईश्वरीय जवाबदेही में उनकी आस्था का प्रतिबिंब है।इसमें नौ परगना में फैले 55 राजस्व ग्रामों में विराजित तमाम देवी-देवता, लाठ, आंगा, छत्र, डोली आदि के रूप में यहां लाए जाते हैं। देवी-देवताओं को भी पक्ष रखने अवसर दिया जाता है। उनके प्रतिनिधि के रूप में पुजारी, गायता, सिरहा, मांझी व मुखिया मौजूद रहते हैं।जहां दुनिया के दूसरे धर्मों में महज ईश्वर की निंदा करने को भी “पाप” समझा जाता है । वहीं आदिवासियों की संस्कृति में देवताओं की निंदा करने, आरोप लगाने और सजा देने का भी प्रावधान है ।
17वीं शताब्दी में जगदलपुर के राजा भोरमदेव, भंगान (बंगाल) की रानी भंगाराम देवी से शादी करके उसे यहां लाए थे। ऐसा माना जाता है कि बंगाल की रानी पूजा पाठ के साथ-साथ तंत्र मंत्र की साधना भी करती थीं। किवदंती है कि उनके प्रभाव से इस क्षेत्र में महामारी का प्रकोप फैल गया था, जिसके कारण उन्हें जगदलपुर में रहने का स्थान नहीं दिया गया, बल्कि केशकाल में जगह दी गई ।भंगाराम देवी में डॉक्टर की आत्मा का प्रवेश होने के कारण उनमें स्त्री और पुरुष दोनों की शक्तियां विद्यमान हैं । इसलिए उन्हें अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है । यही वजह है कि भंगाराम का नाम पुरुषों जैसा हो गया है । बंगाल से आने कारण उनका नाम भंगाराम पड़ा ।यह बात बहुत अचरज में डालती है कि ऐसा समाज जिसमें महिलाओं को समानता का अधिकार है, वहां पर किसी पूजा-विधान में महिलाओं के प्रवेश को निषिद्ध किया जाना एक बिल्कुल ही अलहदा सी बात है। लेकिन आदिवासियों की मान्यता के अनुरूप महिलाओं में जादू-टोने और देवताओं को प्रभावित करने की शक्ति होती है । संभव है, इन्हीं कारणों से जात्रा में महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता।
यह परंपरा 50 वर्षों से चली आ रही है, जो आज भी कायम है ।बस्तर के जिन आदिवासियों को शहरों में रहने वालों की दृष्टि में, आमतौर पर पुरातन, या अशिक्षित समझने की भूल अक्सर की जाती है, उन्ही आदिवासियों के समुदाय में देवी भंगाराम की कौतूहल से भरपूर कहानी आज भी जीवंत है आज के समय में जब तथाकथित आधुनिक मनुष्यों और समाजों के बीच संदेह और छल के सिवाय और कुछ भी नहीं बचा है, ऐसे घुटन भरे वातावरण में केशकाल की देवी भंगाराम की कहानी और यहाँ के आदिवासियों की लोक परम्परा, समूचे जीवन को ही समृद्ध करने वाली है. साथ ही विश्वास और आस्था को एक बिल्कुल ही नई परिभाषा देने वाली है बस्तर के गोंड आदिवासी अपनी लोक परम्परा और संस्कृति की विशेषताओं के लिए दुनिया भर में पहचाने जाते हैं, लेकिन इस समुदाय में “भंगाराम जात्रा” का पर्व का विशेष महत्व है। यह पर्व बस्तर के हलबा गोंड जनजातीय समुदाय के देवताओं के न्याय प्रणाली से जुड़ी विशिष्ट परंपरा है ।इस प्राचीन मंदिर की स्थापना 1700-1800 ईस्वी में राजा भाईरामदेव के शासनकाल के दौरान हुई थी। जातरा न केवल श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है, बल्कि बस्तर की सांस्कृतिक विरासत और देवी परंपराओं को जानने के लिए शोधकर्ताओं, साहित्यकारों और पत्रकारों के लिए भी विशेष आकर्षण का केंद्र है।

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Author: Deepak Mittal

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