महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हुई दुर्गति के बाद फिर पार्टी की रणनीति में खामियों पर चर्चा होने लगी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी की हारों की संख्या 89 तक पहुंच गई है।
10 सालों में हुए 62 चुनावों में कांग्रेस को अब तक 47 में हार मिली है। इन चुनावों में बीते तीनों लोकसभा चुनाव भी शामिल हैं। राहुल गांधी समेत कांग्रेस की टॉप लीडरशिप पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। दस सालों में बड़ी संख्या में दिग्गज नेताओं ने कांग्रेस को छोड़ा और हर बार लीडरशिप के विजन पर सवाल उठाए गए। तो आखिर कांग्रेस ऐसा क्या करे कि वह अपना पुराना गौरव वापस ला सके? शायद इसका जवाब भी किसी दिग्गज बीजेपी नेता की रणनीति और वर्किंग स्टाइल में छुपा हुआ है।
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को विपक्षी नेता कई बार 1984 के लोकसभा चुनाव की याद दिलाते हैं। उस चुनाव में बीजेपी को केवल 2 सीटें मिली थीं। 1980 में बनी बीजेपी उस लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिर गई थी और लगभग सभी बड़े नेता अपना चुनाव हार गए थे। यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव की स्थिति थी। तब कांग्रेस की तरफ से बीजेपी का ‘हम दो हमारे दो’ कहकर मजाक भी उड़ाया करते थे। आज की कांग्रेस की स्थिति उस वक्त की बीजेपी से कई गुना बेहतर है। उस वक्त बीजेपी की कमान एक ऐसे नेता ने संभाली जिसकी वजह से पार्टी आज जैसी दिखती है, वैसी बन पाई। नाम बताने की जरूरत नहीं है कि वह नेता लालकृष्ण आडवाणी थे।
‘हम दो, हमारे दो’ से आगे बीजेपी
दरअसल यह चर्चा तो अक्सर होती है कि बीजेपी की हालत 1984 में बहुत खराब हो गई थी, लेकिन उस स्थिति से उबरने के लिए पार्टी ने क्या-क्या किया, इसकी चर्चा कम होती है। दरअसल यहीं से बीजेपी ने अपनी विचारधारा में पूरी तरह परिवर्तन कर दिया था। जिस गांधीवादी समाजवाद के साथ 1980 में बीजेपी की स्थापना हुई थी, उसे 1984 के बाद बदला गया। बीजेपी के टॉप लीडर अटल बिहारी वाजपेयी अगले करीब एक दशक नेपथ्य में चले गए थे।
1986 से बदली पार्टी की रणनीति
बीजेपी ने जनसंघ की विचारधारा हिंदुत्व को एक बार फिर प्रमुखता से उठाना शुरू किया। 1986 में आडवाणी के हाथों बीजेपी की कमान दी गई। इसके बाद बीजेपी का ग्राफ अगले चुनाव यानी 1989 के लोकसभा चुनाव में 2 से 86 हो गया था। बीजेपी राम मंदिर आंदोलन का मुख्य चेहरा बन गई थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि अब तक जो आडवाणी राज्यसभा की राजनीति करते रहे थे, वो सीधे चुनावी मैदान में कूदे और पहली बार सांसद बनकर लोकसभा में पहुंचे थे। बीजेपी ने राम मंदिर के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाया।
1989 में मिली ‘शुरुआती रफ्तार’
1989 में बीजेपी को ‘शुरुआती रफ्तार’ मिल चुकी थी और उसके बाद आया 1990 में रथयात्रा का दौर। आडवाणी की रथयात्रा को भारत की सबसे सफल राजनीतिक यात्राओं में माना जाता है। हालांकि, खुद बीजेपी इस रथयात्रा को भावनाओं से जोड़कर बताती रही है, लेकिन इससे जो उसे राजनीतिक लाभ हुआ वह किसी से छुपा नहीं है। आडवाणी के अध्यक्ष रहने के इस युग का अंत 1996 में जाकर तब हुआ जब पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह बीजेपी की अगुवाई वाली 13 दिनों की सरकार थी।
इन सबके बीच आडवाणी के बारे में यह जानना भी जरूरी है कि 1995 में खुद आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पीएम फेस के रूप में प्रस्तावित किया था। मुंबई में हुए बीजेपी के पूर्ण अधिवेशन के दौरान अगर आडवाणी चाहते, तो अपना नाम भी घोषित कर सकते थे। उनका परफॉरमेंस बेहतरीन था और पार्टी में उनकी पकड़ बहुत मजबूत थी। अटल लगभग एक दशक से नेपथ्य में थे, लेकिन आडवाणी समझते थे कि उन्हें क्या करना है?
कांग्रेस को कौन बदलेगा?
वर्तमान में जो कांग्रेस की स्थिति है, उसे भी एक आडवाणी जैसा रणनीतिकार और संगठनकर्ता नेता चाहिए। निश्चित तौर पर कांग्रेस हिंदुत्व आधारित राजनिति की रणनीति नहीं बनाएगी, लेकिन उसे अपने हिसाब से रणनीति में बदलाव तो करना ही होगा। और ऐसा काम वही नेता कर सकता है कि जिसमें आडवाणी जैसा आभामंडल हो और राजनीति की जमीनी पकड़ हो। साथ ही वह अपने ताकत के शीर्ष पर भी यह जानता हो कि सर्वोच्च पद के लिए उसे किसका नाम प्रस्तावित करना है। वह यह जानता हो कि किस रणनीति के जरिए जनता की नब्ज समझी जा सकती है और पार्टी का जनाधार बढ़ाया जा सके। इसलिए कांग्रेस को इस वक्त एक ‘आडवाणी’ की सख्त दरकार है जो चुनाव दर चुनाव हारती पार्टी की दशा-दिशा बदल दे।